गुरांचं वर्गीकरण करून झालंय
मोजदाद करून खूणा करण्यात आल्यात
आगगाड्यांवर लादणूक सुद्धा झालीय
मूढ गुरांची.
गोठ्यात
उरल्यात फक्त माद्या
आणखी गुरं जन्मास घालण्यासाठी.
खाणीमधून परतली आहे आगगाडी
आणि आलेयत सडून-गळून गेलेले
रोगग्रस्त वृद्ध गुरं आफ्रिकेची
अरेरे,त्यांनी हरवलाय आपला स्वाभिमान
या कमनशिबी गुरांनी.
या आणि पाहा
या विकलेल्या गुरांनी
गमावलाय आपला स्वाभिमान
अरेरे विधात्या,माझ्या धरतीच्या
विकले गेलेल्या गुरांनी गमावलाय
आपला स्वाभिमान
पुन्हा एकदा
वेगवेगळे केले गेलेय गुरांना
ठप्पे मारले गेलेयत
तयार उभीयं आगगाडी
या असहाय गुरांना
वाहून घेऊन जाण्यासाठी
पुन्हा एकदा
वेगवेगळे केले गेलेय गुरांना
ठप्पे मारले गेलेयत
तयार उभीयं आगगाडी
या असहाय गुरांना
वाहून घेऊन जाण्यासाठी
मूढ गुरं
खाणीची गुरं
आफ्रिकेची गुरं
ठप्पा मारलेले आणि विकले गेलेले
{ या कवितेत स्थलांतरीत मजूरांना गुरे म्हटले जात आहे,ज्यांना निवडून,मोजून,खूणा करून विकण्यात आले आहे....नंतर मग मूढ गुरांना रेल्वेवर लादण्यात आलेय.दक्षिण आफ्रिकेतील खाणीत काम करण्यासाठी जवळपासच्या देशांमधील स्थलांतरीत मजूर रेल्वेने येत राहिले आहेत.
हे स्थलांतरीत असहाय्य आहेत,कारण ते समजून उमजून देखील त्या शोषण व्यवस्थेचे बळी बनण्यास तत्पर आहेत.खाणींमधून परतणार्यांविषयींचे गावकर्यांचे उद्गार पाहा.कवितेत जिथे आपली सामूहिक श्रमशक्ती आणि बांधवांना खाणीच्या हाती गमावणार्या ग्रामीण समाजाचा रोष प्रकट झाला आहे,तिथेच त्या स्थलांतरीत मजूरांविषयींची वेदनाही व्यक्त झाली आहे,ज्यांना दूध आणि मधाची स्वप्नं दाखवून शहरांनी आकर्षित केलं होतं ,
पण आज ते स्वतःला पूर्णपणे लुटलेले-लुबाडलेले
समजत आहेत. }
मराठी अनुवाद
भरत यादव
Bharat Yadav
हिंदी अनुवाद
मोज़ाम्बिक की एक
पारंपरिक कविता :
मम्पारा मगाइज़ा
मवेशियों को छांट लिया गया है
गिन कर लगा दिये गये हैं निशान
लदाई भी हो गयी है रेलों पर,
मूढ़ मवेशियों की।
बाड़े के भीतर
रह गयी हैं केवल मादाएं
और मवेशियों को जनने के लिये।
मिगौदिनी से लौट आयी है रेल
और आ चुके सड़े-गले, बीमारियों से भरे
बूढ़े मवेशी अफ्रीका के।
ओह, उन्होंने गंवा दिया है अपना मूंड़
इन मगाइज़ा मवेशियों ने।
आओ और देखो
इन बिके मवेशियों ने
गंवा दिया है अपना मूंड़
ओ विधाता, मेरी धरती के
बिके हुए मवेशियों ने गंवा दिया अपना मूंड़।
एक बार फिर
छांट लिया गया है मवेशियों को,
लगा दिये गये हैं निशान
तैयार खड़ी हैं रेलें
इन निरीह मवेशियों को
ढो कर ले जाने के लिये
मूढ़ मवेशी
खदान मवेशी
अफ्रीका के मवेशी
निशान लगे हुए और बेचे जा चुके।
ह्वेन बुलेट्स बिगिन टू फ़्लावर,
डिकिन्सन, 1973 से,
अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र
# मम्पारा– एक प्रवासी मज़दूर, जो दक्षिण अफ्रीका की खदानों से अभी-अभी वापस आया है, निरा मूर्ख
# मिगौदिनी– खदान,
# मगाइज़ा– हतभाग्य
इस कविता में प्रवासी मज़दूर को 'मवेशी' कहा जा रहा है, जिसे चुन कर, गिन कर, निशान लगा कर बेच दिया गया है... फिर उस मूढ़ मवेशी को रेल पर लाद दिया गया है। दक्षिण अफ्रीकी खदानों में काम करने के लिये आसपास के देशों के प्रवासी मज़दूर रेलों से आते रहे हैं। "पीछे गांवों में रह जाती हैं मादाएं, ताकि वे जन्म दे सकें और नये मवेशियों को।"
ये प्रवासी 'निरीह' हैं, क्योंकि वे जानते-समझते हुए भी उस दमनकारी व्यवस्था का शिकार बनने के लिये तत्पर हैं। मिगौदिनी से लौट कर आने वालों के बारे में गांव वालों का उद्गार देखिये– "बीमारियों से सड़े-गले, अफ्रीका के बूढ़े मवेशी, जिन्होंने गंवा दिया है अपना मूंड़, इन मगाइज़ा मवेशियों ने।" कविता में जहां अपनी सामुदायिक श्रमशक्ति और बन्धु-बान्धवों को खदानों के हाथों गंवा देने वाले ग्रामीण समाज का रोष प्रकट हुआ है, वही उन प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा भी उजागर हुई है, जिनको दूध और शहद के सपने दिखा कर शहर ने लुभाया था, पर आज वे ख़ुद को पूरी तरह लुटा-पिटा महसूस करते हैं।
अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र
# मम्पारा– एक प्रवासी मज़दूर, जो दक्षिण अफ्रीका की खदानों से अभी-अभी वापस आया है, निरा मूर्ख
# मिगौदिनी– खदान,
# मगाइज़ा– हतभाग्य
इस कविता में प्रवासी मज़दूर को 'मवेशी' कहा जा रहा है, जिसे चुन कर, गिन कर, निशान लगा कर बेच दिया गया है... फिर उस मूढ़ मवेशी को रेल पर लाद दिया गया है। दक्षिण अफ्रीकी खदानों में काम करने के लिये आसपास के देशों के प्रवासी मज़दूर रेलों से आते रहे हैं। "पीछे गांवों में रह जाती हैं मादाएं, ताकि वे जन्म दे सकें और नये मवेशियों को।"
ये प्रवासी 'निरीह' हैं, क्योंकि वे जानते-समझते हुए भी उस दमनकारी व्यवस्था का शिकार बनने के लिये तत्पर हैं। मिगौदिनी से लौट कर आने वालों के बारे में गांव वालों का उद्गार देखिये– "बीमारियों से सड़े-गले, अफ्रीका के बूढ़े मवेशी, जिन्होंने गंवा दिया है अपना मूंड़, इन मगाइज़ा मवेशियों ने।" कविता में जहां अपनी सामुदायिक श्रमशक्ति और बन्धु-बान्धवों को खदानों के हाथों गंवा देने वाले ग्रामीण समाज का रोष प्रकट हुआ है, वही उन प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा भी उजागर हुई है, जिनको दूध और शहद के सपने दिखा कर शहर ने लुभाया था, पर आज वे ख़ुद को पूरी तरह लुटा-पिटा महसूस करते हैं।
मूळ डिकीन्सन
यांच्या इंग्रजी कवितेचा
हिंदी अनुवाद
राजेश चंद्र
Rajesh Chandra